ऐसी ही थी वो बुजुर्ग,झुर्रीदार , बुझा बुझा सा चेहरा, एकदम पतली सी
कमजोर सी. मंझोला कद,धूप मे खूब तपा शरीर सांवले से काला पड़ चूका था.
कपड़े..वैसे ही जैसे बरसों से इस 'क्लास' के लोग पहनते हैं.
बताने की जरूरत नही पड़ती कि वो किस बिरादरी के होंगे. इनकी एक ही बिरादरी है - गरीबी, मजहब भी एक ही होता है इनका - गरीबी .
आज़ादी से पहले भी ये ऐसे hi रहते थे बैलगाड़ी -युग मे.
आज भी कुछ नही बदला इनके लिए इनके जीवन मे , मारुती, लखटकिया या फरारी के जमाने में भी.
वो मेरे स्कुल आते जाते अक्सर मिल जाती थी-'नमस्ते
मैडमजी ! कैसे हो ? ठीक हो ?' अपनी बाइक पर आते जाते मेरी नजर भी उन्हें ढूंढने लगी थी.
दूर से दिखती तो मैं भी बुलंद आवाज में चिल्ला कर पूछती -''बाई!कशान हो? '' यानि माँ! कैसी हो ? ' हाऊ' यानि 'ठीक' जवाब आता.
एक दिन स्कुल आई बहुत देर तक बैठी ही रही तो मैंने कारण पूछा.
''मैडमजी !सरकारी गेंहू आते हैं,नीचे बिखरे मुझे उठाने दो,साफ करके पिसा लूंगी,बुड्ढी हो गई हूँ , अब काम भी नही होता,जवान थी खदानों मे,खेतो मे खूब मजूरी की,शरीर उम्र के साथ थक गया तो बकरिया चराने लगी, अब नही दौड़ सकती इन' छेरियों ' के पीछे ,डोकरा भी छोड़ गया मुझ अकेली को यहाँ रोने के लिए, आज जब छोरे छोरी जवान हो गए अपनी गिरिस्ती मे रम गए, माँ किस्मे चाहिए अब उनको ? मेरा डोकरा (बुड्ढा) होता ....जरूरत तो अब थी उसकी '' अपने पति को वो याद कर कर के सिसके जा रही थी.
''जमीन घर बार ? '' मैंने पूछा
''मजूरी कर कर के सब बनाया, जमीन भी खरीदी ,मकान भी बनाया, बिन्दनियो (बहुओं)के गहने भी चढ़ाए, सास ससुर का 'करियावर 'भी किया. तीन बेटियों का बियाह और तीन ननदों के मायरा भी किया, आधी जमीन उसी मे बिक गई पर....नाक रखी अपने सास ससुर की भी और डोकरे की भी '' आवाज और चेहरे पर गर्व उभर आया था .आज..बेटों के पास दो रोटी नही थी माँ के लिए.
'' बेदखल क्यों नही कर देती उन्हें जमीन जायदाद से ?- मैंने कहा
''नहीं मेडमजी,ये तो नही करूँ,अगनी तो ये बेटे ही देंगे न? लोग उनके माजे मे धुला नही डालेंगे ... कल बिस्तर पकड़ लूँ, मौत जाने कब आए , तब तो लोक लाज से ही सही सेवा करेंगे छोरे, गरीब है. अपने बीबी बच्चों का पेट भरे या माँ का??? दान धरम,पुण्य ,दूजों की सेवा का काम भी मैडम जी तभी होता है जब खुद का पेट भरा हो, समरथ हो तो सब सूझे .'' अपने जीवन को ही जैसे मेरे सामने निचोड़ दिया 'बाई'ने .
मैंने कानून तोडा, नियम भंग किए. 'डोकरी माँ' को गेंहू दे दिए. जरूरत पड़ने पर और ले जाने को कहा, मेरे मन मे न कोई भय था, न गिल्टी . कुछ रूपये उनके हाथ मे रखे बाकि सामान लाने के लिए.
'मैडमजी मेरी 'पेसन' करा दो'
;बाई जिनके बालिग बेटे हो सरकार उन्हें 'वृद्धावस्था पेंशन' नही देती' मैंने समझाया.
मेरा सरकारी गेंहू देना या खुद कोई मदद करना कुछ को सहन नही हो रहा था,.....'' मेडम आप...? ''
''आप लोग कीजिये , कोई भूखा सोये आपके मोहल्ले या इस छोटे से गाँव मे सहन कैसे हो जाता है आप लोगो को?? ''
वार्डपंच,सरपंच,प्रधान गाँवके मोत्बीरों सब को लिख लिखकर दिया, कहा, पर....कुछ नही हुआ।
पांच छ दिन के आकस्मिक अवकाश के बाद जब मैं स्कूल आई, मालूम हुआ डोकरी माँ नही रही. वार्ड पंच,सरपंच और गाँव वालो ने आ कर मुझे कहा -''मैडमजी! पत्रकार,कलेक्टर साब और बड़े बड़े नेता आ रहे हैं. 'गाम' की इज्जत का सवाल है आप मत बताना कि वो भूख से.... ''
उस दिन इच्छा हुई कि इतना चीख चीख कर रोऊँ कि कहीं भगवान है तो सुने. और ....झापटें लगाऊँ कस कस के इन सब 'इंसानों' के ...
ओह!
ReplyDeletethanx anurag ji! aap aaye...bahuut achchha lga. woooow
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना है. बधाई.
ReplyDeleteइंदु माँ,
ReplyDeleteराम राम!
सभी का रोल वैसा ही था, जैसा होना चाहिए था, या जैसा कि होता है!
आप अत्यधिक संवेदनशील हो!
ढ़
--
थर्टीन एक्सप्रेशंस ऑफ़ लव!!!
मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteझापटे लगाने की इच्छा तो होती है, परंतु दुनिया है कि सुधरती नहीं ..
ReplyDeleteअगर अक्षर बडे हो तो स्याही ज्यादा नही लगती, पढने वाले को आसानी रहती हे जी...
ReplyDeleteगांव की इज्जत...थु हे
ReplyDeleteक्या है ये ... कोयन होता है ऐसा ...
ReplyDeleteसंवेदना कहोती जा रही है ... या आप ज्यादा संवेदनशील हैं ...
पर दिल अगर सच में होता है तो शायद किसी किसी के पास होता है ...
स्तब्ध हूँ ...और निशब्द भी
ReplyDeleteबस इंदु माँ ......ब्लॉग में लिखने का फोंड बड़ा कर दे ...पढ़ने में बहुत मुश्किल होती है :(
शुर्किया माँ .......पर आज यहाँ आने के बाद फोंड बड़ा ही मिला है मुझे ...अब पढ़ने का और भी मज़ा आ रहा है
ReplyDeleteआपने माँ की व्यथा सुनी,सही,महसूस की और अपने जमीर की भी सुन कर जो हो सका वो माँ के लिए किया ....ये भी सुकून की बात है,
ReplyDeleteकौन सुनता है ???
स्वस्थ रहें !
भगवान से प्राथना करुगा कि ऎसा किसी मा के साथ नाहि हो !
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