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Friday 7 June 2013

पर वो गिल्लू नही

उस दिन मेरे दोनों ट्विन्स पोते घर के बाहर बने छोटे से बगीचे  में से दौड़ते हुए घर के भीतर आये.  उनकी मोटी मोटी आँखे फैली हुई थी और आँखों में आश्चर्य के भाव तैर रहे थे।

'डार्लिंग! (ह्म्म्म दादी नही  बुलाते वो मुझे) वो बाहर पेड़ है न बड़ा सा ...उसके ऊपर squirrel यूँ दौड़ रही थी तो उसका बच्चा धम्म से नीचे गिर गया ...इतनीssss  हाईट से और उसका तो मुंह भी यूँsss खुला हुआ है ' - विद एक्शन दोनों ने मुझे और अपने दादू को बताया। '

'दादू! वो चाचु के पास है. आप बाहर चलकर देखो तो सही ' -  उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा .

 इतने में छोटा बेटा आदित्य उर्फ़ ऋतु  गिलहरी के एक छोटे से बच्चे को अंदर लेकर आ गया। हथेली भर का गिलहरी का वो बच्चा सचमुच अचेत था .
                                                 
उसके खुले मुंह में कुछ बुँदे पानी की डाली।थोड़ी देर बाद वो हरकत में आया. मन को राहत मिली।

अब हमारे घर में तीन तीन छोटे बच्चे थे.  इनका नामकरण किया गया 'गिल्लू'.

फ़िलहाल एक गत्ते के डिब्बे में उनका रेन-बसेरा बनाया गया. ऋतू चाचू और उनके पापा सेवा करते।

भैया जी तो इतने हिलमिल गये कि दो चार दिन बाद ही सबके पीठ, कन्धे से ले कर  सिर तक सैर करने लगे। ऋतू की हथेली पर नींद भी निकाल लेते.
                                                                       


घर के बाहर गमले में लगे मनी-प्लान्ट पर घूमना, दौड़ लगाना गिल्लू को बहुत पसंद था.
                                                                         
                                                                                                                                                    
एक सुबह  हम सभी हॉल hall में बैठे हुए थे। हमने देखा  एक गिलहरी दरवाजे तक बार बार आती और वापस भाग  जाती.  कहीं ये इसकी माँ तो नही??? 

शायद अपने बच्चे की याद आ गई हो या    इसकी 'ची-ची ' की आवाज़ सुनकर आ गई हो........हमने दरवाजे खोल दिये.  एक गिलहरी भीतर तक चली आई पर शायद इंसानों पर उसे भरोसा नही था। वापस दौड़ती  हुई बाहर निकल गई .

अगले दिन हमने जाली वाले दरवाजे पर  एक गिलहरी को इधर उधर दौड़ लगाते देखा . हाँ शायद ये 'वो' ही गिलहरी थी। वो अपने मुंह से आवाज़े निकाल रही थी. जिसे सुनकर गिल्लू आदित्य की गोदी से उतर कर जाली वाले दरवाजे पर चढ़ गया ..बाहर माँ चीख रही थी, भीतर….उसका बच्चा।
 
 उफ़्फ़ ! उनकी तड़प उनकी छटपटाहट ! 

हमने दरवाज़ा खोल दिया थोड़ी देर बाद वो गिलहरी भीतर आ गई . दोनों पैरों पर बैठ गई. गिल्लू उसके पेट से बन्दर के बच्चे की तरह लिपट गया और पलक झपकते ही वो आँखों से ओझल हो गई. हम उस अंतिम क्षण का फोटो नही ले पाए। पर हम बहुत खुश थे कि गिल्लू को उसकी माँ ने भुलाया नही था। इंसानों के बीच से वो अपने बच्चे को उठाकर ले गई. तनिक भी नही डरी। 

इन्होंने अखबार उठाया . देखा। पटक दिया. मुख पृष्ठ  पर एक कोने में सबसे उपर एक समाचार छपा था ' 'रेल  की पटरियों  के बीच  नवजात बालिका  मिली '........... उसका दुर्भाग्य ....वो इंसान का बच्चा थी ......गिल्लू नही थी .

2 comments:

  1. गिल्लू जी से मिलाने का आभार! सब इन्सानों मे इंसानियत भले न बची हो लेकिन पशुओं ने वात्सल्य अभी भी संभालकर रखा है।

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  2. insan ko insaniyat ki rah dikhati muk pr mukhar ho prem purit bandno ka ahssas dilate Gillu ji "Di" khani m dubte hi kartavy bodh dilati huami "Di"***

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